कागज की संज्ञा
कोरा हु में अभी लेखन का आभारी
भटका हु में कोई कश्ती बंजारी
अधूरे से है किसी लेखक के खवाब
प्रष्टो पे छिपे है किसी हस्ती के जज्बात
विचारो के कमरे में होती है कोई बात
इस बरबस दुनिया को देख कर रूती है कागज की आँख
रंगों से सजी है खबरे हजार पर लेती है रिश्वत ये झोली उधार
शब्दों में भिखरी है किस्मत निखार पर पैसा ही बोला हु में रद्दी बेकार
अभी कोरा हु में अभी लेखन का आभारी पर भटका हु में ये कश्ती बंजारी !!!!
!!
=अंश
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