Wednesday, November 28, 2012

मे कभी इन्सान था

                        मे कभी इन्सान था 

 

 बस्ती में कोई  मर गया  है
चारों  तरफ शोर  गुल है
कोई अकेला ,खामोश टूटा हुआ ,
छाती में लिए ज़माने की ठोकरे
किसी अँधेरी कोठरी में रहा करता था !
तनहा -तनहा रोया करता था !
यहाँ से वहा ,वहा से यहाँ ,
उन तमाम उपहास ,उपेशा को झेल कर
कोठरी में चक्कर लगता ,
अपने  अस्तित्वा के नकार  की घुतन को
तरह तरह के तर्कों से ढका करता
अकसर खिड़की के किसी कोने से अपनी बेबसी को निहारता
कभी भुजते  हुए दिए की लपट से अपनी तुलना करता
सोचा करता सब ख़तम होता जा रहा है
अब किसी को उसकी जरुरत नही
हर गली हर दरवाजे खटकखटक कर
झुके कंधो का भोज लिए फिर लोट आया उस अंधेर नगरी में
जहा ख्जोया था वजूद उसका ,
अब गुमनामी में नाम था जिसका
थका हरा  वो ये जुंग भी हर गया
सब ने  पुछा  क्या नाम था उसका
बेबस होकर धरती बोली
मूर्खो ये तो बस ईमान था
अपनी रूह से पुचो की कब तू इन्सां था

1 comment:

  1. i shared this poem after meeeting genral v.k singh
    isnpierd by him

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